मुकेश कुमार वैष्णव
सायला।
कुल्हड़ में चाय पीने का, एक नायाब फायदा ये भी है।
इसी बहाने चूम लेते हैं, देश की मिट्टी जाने-अनजाने।
किसी शायर की इन पंक्तियों में एक गहरा भाव छीपा हुआ है। मिट्टी के पात्र कुल्हड में आपने कभी ना कभी चाय जरूर पी होगी। कुल्हड में चाय पीने का एक अलग ही मजा है। अपनी माटी की सौंधी खुशबू आपके मन को प्रफुल्लित भी कर देगी। साथ ही कुल्हड इको-फ्रेंडली भी होता है जिससे पर्यावरण प्रदूषण नही फैलाने का एक सुखद एहसास भी होता है।
इसी एहसास को बनाए रखने के लिए जालोर जिले के सायला पंचायत समिति के आंवलोज निवासी शंकरलाल प्रजापत ने 32 साल पहले एक छोटी-सी शुरूआत की। प्रारंभ में शंकरलाल कामकाज की तलाश में गुजरात गए। वहां अहमदाबाद के देहगांव में सिरामिक के कारखाने में काम मिला। लेकिन 1988 में पुनः गुजरात से अपने गांव आंवलोज लौट आए। यहां 1990 में अपना पुस्तैनी कार्य घर से ही मिट्टी के चाय पीने के कुल्हड बनाने की शुरुआत की। मूलतः आंवलोज गांव निवासी शंकरलाल का परिवार पिछले कई वर्षो से हस्तनिर्मित मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य करता है। जिसमे मुख्यतः चाय पीने के मिट्टी के कुल्लड़ शामिल है। उसके साथ ही कई उपयोगी सामग्री का निर्माण करते है। अब इस कार्य में करीबन 30 से अधिक परिवारों को रोजगार मिलने से फायदा हो रहा है। जिसमे अधिकतर महिलाएं जुडी हुई है। जिनको प्रति व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 250 से 300 रुपये तक का रोजगार मिल जाता है। जो प्रतिदिन 30 हजार मिट्टी के बर्तन तैयार करते है।
पुत्रों ने किया कार्य का विस्तार
शंकरलाल प्रजापत के बड़े पुत्र हरीश प्रजापत ने बताया की पिता ने घर से ही चाय पीने के कुल्हड बनाने की शुरूआत की। जिसका हम तीन भाइयों ने मिलकर विस्तार करते हुए बड़ा रूप दिया। आज 6 प्रकार के मिट्टी के पात्र बनाते है। इस काम में मेरे छोटे भाई गणपत प्रजापत एवं दलाराम प्रजापत के साथ मिलकर काम करते है। कारखाने में 6 प्रकार के मिट्टी के पात्रो का निर्माण होता है। जिसमें चाय पीने के कुल्हड, दूध के ग्लास, दूध फिनी के कटोरे, दही वडे के कटोरे, आईसक्रीम के कप, लस्सी के ग्लास बनाते है। मिट्टी के पात्र राजस्थान में जोधपुर, पाली, सिरोह, बाड़मेर सहित गुजरात के पालनपुर, डीसा, धानेरा तक बेचते है। हरीश ने कहा की अगर सरकारी प्रोत्साहन मिलें तो इस व्यवसाय को पूरे देश में पहचान मिल सकती है।
सप्ताह में एक लाख मिटटी के पात्र होते तैयार
प्रतिदिन तीस हजार के आसपास मिट्टी के बर्तन तैयार होते है। इसके लिए सबसे पहले मिट्टी को गिला कर उसका पेस्ट बनाते है। फिर मिक्सिंग किया जाता है। उसके बाद जिस आकर का पात्र बनाना हो उस आकार की सांसा मशीन में सेट कर बनाया जाता है। फिर धुप में सुखाया जाता है। तीन दिन बाद इनको भट्टी में डालकर पकाया जाता है। छोटे कप एक बार में करीबन 80 हजार और बड़े बर्तन 40 हजार तक एक साथ भट्टी में डाल कर पकाए जाते है। भट्टी में रखकर भट्टी को बन्द किया जाता है। फिर सुखी घास, नीम, बबूल की लकडियां डाल भट्टी को जलाया जाता है। जिसमे निर्धारित तापमान पर बर्तन पककर बर्तन तैयार हो जाते है। फिर बाजारों में बिकने के लिए आते है।
डिस्पोजल में गर्म चाय-पानी पीना हानिकारक
गर्म चाय को जब डिस्पोजल कप में डालते हैं तो एक प्रकार की विषैली रासायनिक प्रक्रिया बनती है। वह चाय के साथ पीकर शरीर में चली जाती है। इससे कैंसर जैसी गंभीर सहित अन्य बीमारियों को बढावा मिलता है। हल्की क्वालिटी के डिस्पोजल कप व गिलास में गर्म खाद्य पदार्थ के साथ कई खतरनाक घुलनशील रासायनिक तत्व घुल जाते हैं। विशेषकर चाय, कॉफी में कैफीन के साथ अधिकतर केमिकल क्रियाशील होते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। गैस, अपच, एसीडीटी, अल्सर सहित उदर रोग हो सकते हैं। साथ ही कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।
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