मुनिसुव्रत स्वामी जिनालय की 10वीं वर्षगाँठ व 11वां ध्वजारोहण कार्यक्रम व सत्रहभेदी पूजा संपन्न
पाली।
जिले के खिमेल नगर में श्रीमती बसंती देवी किशोरमल खिमावत परिवार द्वारा निर्मित एवं आचार्य जयन्तसेन सूरीश्वर द्वारा प्रतिष्ठित मुनिसुव्रत स्वामी जिनालय की 10वीं वर्षगाँठ व 11वें ध्वजारोहण कार्यक्रम आचार्य जयन्तसेन सूरीश्वर के सुशिष्य मुनिराज डॉ. संयमरत्न विजय, मुनि भुवनरत्न विजय एवं साध्वी शासनदर्शना आदि ठाणा की निर्मल निश्रा में सत्रहभेदी पूजा के साथ सानंद संपन्न हुआ।इस मौके मुनि डॉ. संयमरत्न विजय ने प्रवचन देते हुए कहा कि ईश्वर कोई वस्तु नहीं है, वह तो अनुभूति है और अनुभूति का मात्र अनुभव होता है, दर्शन नहीं। आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो मंदिर में मूर्ति परमात्मा का प्रतिरूप है। पद्मासन में हमारी मुद्रा मंदिर की ही प्रतिकृति है। जैसे- आलथी-पालथी के जैसा चबूतरा, धड़ जैसे चबूतरे पर मंदिर का गोल कमरा, सिर के जैसा गुम्बज, जूड़े जैसा कलश, कान और आँख जैसी खिड़कियां, मुख जैसा दरवाजा, आत्मा जैसी मूर्ति और मन जैसा पुजारी। हमारे देह मंदिर में विदेह परमात्मा बैठा है। उस परमात्मा को पहचानना ही इस देह मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा है। तन की बीमारी हॉस्पिटल दूर करता है तो मन की बीमारी मंदिर दूर करता है। पहले बीमारी मन में आती है, फिर तन में। अतः तन में बीमारी आए उसके पूर्व मंदिर जाकर मन की बीमारी दूर कर लेना चाहिए। नेत्रों के सामने जब ऐनक होती है, तो क्या नेत्र उस ऐनक को देखता है? नहीं, ऐनक तो माध्यम है, वस्तु को अति स्पष्टता से देखने के लिए। ऐसे ही निरंजन-निराकार-अव्यक्त परमात्मा को देखने-समझने के लिए मूर्ति या चित्र आवश्यक है, जो हमारे लिए परम उपकारी है।
परमात्मा की प्रतिमा प्रति व्यक्ति के लिए माँ के समान है। जिंदगी में सुखी रहना हो तो हम सोचे कम और करें ज्यादा। चिंता न करें, चिंता चिता के समान है। जितनी हम चिंता करेंगे, खुद को खोखला बनाते चले जायेंगे।भूतकाल में न जिये। जो बीत गया उस ओर ध्यान नहीं देना। हमेशा खुश रहना सीखें। खुद पर शंका न करें। स्वयं पर संशय होने पर आत्मविश्वास और आत्म सम्मान में कमी आ जाती है। परमात्मा की प्रतिमा हमें मौन रहना, प्रसन्न रहना, समदृष्टि रखना और ध्यान में रहने की शिक्षा देती है। इस दौरान श्रावक श्राविकाएं मौजूद थी।